आर्थिक सर्वेक्षण 2018: ईज ऑफ डूइंग बिजनेस को बढ़ावा देने के लिए सरकार के प्रयास

आर्थिक गतिविधि-ईज ऑफ डूइंग बिजनेस को बढ़ावा देने के लिए सरकार और न्यायिक व्यवस्था के बीच हुए समन्वित प्रयास
केन्‍द्रीय वित्‍त एवं कॉरपोरेट मामलों के मंत्री श्री अरुण जेटली ने आज संसद के पटल पर आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 प्रस्‍तुत किया। आर्थिक सर्वेक्षण, व्यवसाय को आसान बनाने के लिए अपीलीय और न्याय क्षेत्रों में लंबित, विलंबित और अनिर्णीत मामलों के निपटान की जरूरत पर जोर देता है। इन स्थितियों से विवाद समाधान और संविदाओं के क्रियान्वयन में बाधा उत्पन्न आती है, निवेश में कमी आती है, परियोजनाओं का क्रियान्वयन बाधित होता है, कर उगाही में अवरोध उत्पन्न होता है और अदालतों में मामलों पर खर्च बढ़ता है। सर्वेक्षण देश में आर्थिक गतिविधि को बढ़ावा देने के लिए सरकार और न्याय क्षेत्र के समन्वित प्रयासों का सुझाव देता है।
आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत विश्व बैंक की ईज ऑफ डूइंग बिजनेस (ईओडीबी), 2018 में पहली बार 30 स्थान उछलकर चोटी के 100 देशों में शामिल हो गया है। इस रैंकिंग से सरकार द्वारा व्यापक संसूचकों के संदर्भ में किए जा रहे सुधारात्मक उपायों का पता चलता है। भारत कराधान और शोधन अक्षमता से संबंधित संसूचकों में क्रमशः 53 और 33 स्थान ऊपर आया है, जो कराधान के क्षेत्र में किए गए प्रशासनिक सुधारों और शोधन अक्षमता एवं दिवालियापन संहिता (आईबीसी), 2016 को पारित किए जाने के कारण हुआ है। इसने अल्पांश निवेशकों के हितों को सुरक्षा प्रदान करने और रोजगार शुरू करने की इच्छा रखने वाले व्यक्तियों को ऋण उपलब्ध कराने की दिशा में भी निरंतर प्रयास किए गए हैं तथा सरकार द्वारा बिजली उपलब्ध कराने के क्षेत्र में किए गए सुधारों के कारण ईओडीबी, 2018 में बिजली पाने से संबंधित रैंकिंग में भारत 70 स्थान ऊपर आया है। हालांकि सर्वेक्षण के मुताबिक, संविदाओं को अमलीजामा पहनाने से संबंधित संसूचकों के मामले में भारत लगातार पिछड़ रहा है और हाल में जारी रिपोर्ट में भारत इस मामले में 174 से मामूली सुधरकर 164वें स्थान पर पहुंच गया है।
सर्वेक्षण में इस बात पर जोर दिया गया है कि आर्थिक वृद्धि और विकास में कारगर, दक्ष और संविदा को त्वरित लागू करने के महत्व की अनदेखी नहीं की जा सकती है। सर्वेक्षण के मुताबिक एक पारदर्शी और कुछ हद तक कानूनी एवं कार्यकारी व्यवस्था, जो दक्ष न्यायिक प्रणाली द्वारा समर्थित हो और नागरिकों के संपत्ति अधिकारों की उपयुक्त रूप में सुरक्षा करती हो, संविदाओं की पवित्रता को बनाए रखती हो तथा संविदा शामिल पक्षकारों के अधिकारों तथा उत्तरदायित्वों को लागू करती हो, व्यवसाय एवं व्यवसाय की पूर्वापेक्षा है।
सरकार ने संविदा प्रवर्तन व्यवस्था में सुधार लाने के लिए अनेक उपाय किए हैं। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
-अप्रयुक्त हो चुके 1,000 से अधिक कानूनों को समाप्त कर दिया गया।
-मध्यस्थम तथा संराधन अधिनियम, 2015 में संशोधन किया गया।
-उच्च न्यायालय का वाणिज्यिक न्यायालय, वाणिज्यिक प्रभाग तथा वाणिज्यिक अपील प्रभाग अधिनियम, 2015 पारित किया गया।
-लोक अदालत कार्यक्रम का विस्तार किया गया।
-न्यायपालिका ने महत्वपूर्ण नेशनल जुडिशियल डेटा ग्रिड (एनजेडीजी) का विस्तार किया है और प्रत्येक उच्च न्यायालय का डिजिटलीकरण सुनिश्चित करने के नजदीक है।
सर्वेक्षण संकलित किए गए नए आंकड़ों के आधार पर निष्कर्षों को सामने रखने की कोशिश करता है, जो सरल और निरपेक्ष हैं:
-उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों, आर्थिक ट्रिब्यूनलों और कर विभाग में आर्थिक अभियोजन से संबंधित मामलों के निपटान में देरी और उनके लंबित होने के मामले बड़ी संख्या में हैं और इनमें लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। इस क्रम में परियोजनाओं के अटकने, कानूनी लागत में बढ़ोत्तरी, कर राजस्व के लिए जूझने और निवेश में कमी के रूप में अर्थव्यवस्था को नुकसान हो रहा है।
-मामलों के निपटान में देरी और उनके लंबित होने की वजह न्याय व्यवस्था पर काम का ज्यादा बोझ होना है, जिसके परिणाम स्वरूप क्षेत्राधिकार में विस्तार एवं न्यायालयों द्वारा हिदायत देने और स्थगन आदेश देने जैसे मामले होते हैं। कर से संबंधित अभियोजनों में अपील के प्रत्येक चरण में लगातार विफल होने के बावजूद सरकार द्वारा मुकदमेबाजी पर अड़े रहने से ऐसी स्थिति पैदा होती है।
-न्यायालयों और सरकार द्वारा मिलकर काम किया जाए तो स्थिति में पर्याप्त सुधार हो सकता है।
आर्थिक सर्वेक्षण सुझाव देता है कि सरकार राज्यों को प्रोत्साहन आधारित प्रदर्शन के रूप में निचली अदालतों में लंबितता में कमी की दिशा में प्रयासों और प्रगति पर विचार कर सकती है। फाइलिंग, सेवा और अन्य डिलिवरी संबंधित समस्याओं पर व्यय को प्राथमिकता दी जा सकती है, जिनकी वजह से सबसे ज्यादा विलंब होता है। हालांकि समीक्षा में आगाह किया गया है कि मौजूदा क्षमता का पूरा इस्तेमाल किए बिना अतिरिक्त क्षमता का निर्माण प्रभावी नहीं हो सकता है।
सर्वेक्षण के मुताबिक, अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी बाधा बन चुकी इस समस्या को दूर करने के लिए व्यापक सुधार और क्रमगत सुधारों के वास्ते सरकार और अदालतों को मिलकर काम करने की जरूरत है। इसमें कुछ कदम सुझाए गए हैं, जो इस प्रकार हैं:
-निचली अदालतों की न्यायिक क्षमता में विस्तार और उच्च न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय पर मौजूदा बोझ में कमी।
-इसकी सफलता की कम दर को देखते हुए कर विभाग अपीलों की संख्या को सीमित करके स्व-नियंत्रण की दिशा में काम कर सकता है।
-न्यायिक व्यवस्था विशेषकर आधुनिकीकरण और डिजिटलीकरण पर सरकारी व्यय में खासी वृद्धि करना।
-उच्चतम न्यायालय की सफलता के आधार पर ज्यादा विषय केन्द्रित और चरण केन्द्रित पीठ तैयार करना, जिससे अदालतों के लिए लंबित और विलंबितता से लड़ने में आंतरिक विशेषज्ञता विकसित करना संभव होता है।
-अदालतें स्थगित मामलों को प्राथमिकता देने और सख्त समयसीमा लागू करने पर विचार कर सकती है, जिसके भीतर अस्थायी आदेश वाले मामलों पर फैसला दिया जा सकता है। इनमें विशेष रूप से सरकारी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं से जुड़े मामले शामिल होंगे।
-कोर्ट केस मैनेजमेंट और कोर्ट ऑटोमेशन सिस्टम में सुधार।
सर्वेक्षण में इस बात का उल्लेख किया गया कि जीएसटी के साथ हुए हालिया अनुभव ने यह दर्शाया है कि केंद्र और राज्यों के बीच लंबवत सहयोग-सहयोगात्मक संघवाद से व्यापक आर्थिक नीतिगत बदलाव हुए हैं। सर्वेक्षण के मुताबिक संभवतया उसकी क्षैतिज भिन्नता, जिसे सहयोगात्मक पृथक्ककरण कहा जा सकता है, जो एक न्यायपालिका और दूसरी ओर कार्यकारी/विधायका के मध्य संबंधों पर लागू हो सकता है।
(Source: pib.nic.in)

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